Monday, October 20, 2025

नुनुआ से रामधारी सिंह दिनकर बनने की कहानी “जयंती विशेष”

हिमांशु श्रीवास्तव
पत्रकार, नई दिल्ली

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक

बिहार के बेगूसराय में जन्मा ‘नुनुआ’, कौन जानता था कि बड़ा होकर सूर्य के तेज जितना प्रकाशित होगा। गंगा की गोद में बसे गाँव सिमरिया में मामूली किसान रवि सिंह और मनरूप देवी के घर की रौनक बढ़ाने वाले तीन चंद्रमाओं में था मझला रामधारी जो बड़ा होकर ‘दिनकर’ बनने वाला था। रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 में हुआ था। साधारण परिवार में जन्में दिनकर ने बचपन से ही आर्थिक संकट और बाल अवस्था में ही पिता की मृत्यु का शोक झेला था। पैसों की तंगी के कारण नुनुआ के बड़े व छोटे भाई ने अपनी पढ़ाई त्याग दी ताकि वह अपनी रुचि और सपने को पूरा कर सके। दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. किया और उसके तुरंत बाद ही नौकरी की आस में एक कॉलेज में अध्यापक की भूमिका निभाने लगे। किशोर अवस्था से ही काव्यों में रुचि रखने वाले दिनकर की पहली कविता ‘प्रार्थना’ सन् 1924 में पटना कॉलेज की पत्रिका में छपी थी। जिसके बाद उनके काव्यों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह उनके जीवनकाल तक उनके साथ रहा। प्रणबंध (1929), रेणुका (1935) व हुंकार (1938) ने उन्हें कवि के रूप में पूरी तरह स्थापित कर दिया। इस दौरान वह बिहार सरकार में सब-रजिस्टार (1934) के रूप में कार्यरत रहे। हालांकि, अपनी क्रांतिकारी और विद्रोही कविताओं के कारण उन्हें ब्रितानिया हुकूमत का विरोध झेलना पड़ा। इतिहासकारों के मुताबिक, दिनकर 4 वर्षों में 22 बार स्थानांतरित किए गए जिसके बाद उन्होंने अंतत: 1945 में सरकारी नौकरी छोड़ दी।

सच है, विपत्ति जब आती है                                            
कायर को ही दहलाती है
शूरमा नहीं विचलित होते
क्षण एक नहीं धीरज खोते
विघ्नों को गले लगाते हैं
काँटों में राह बनाते हैं।

आज हम जिस दिनकर को राष्ट्रकवि के रूप में जानते हैं उनके कवि से राष्ट्रकवि बनने का सफर इसी से आगे बढ़ता है। दिनकर ने 1946 में ‘कुरुक्षेत्र’ व 1952 में ‘रश्मिरथी’ जैसी कालजयी रचनाओं को अपनी स्याही से इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया। दिनकर की कविताओं ने वीर रस, विद्रोह और क्रांति की पुकार को एक अद्वितीय मंच देने का व जन-जागरुकता का काम किया। इन कविताओं ने युवा जनमानस के मस्तिष्क में वह गहरी छाप छोड़ी जिसकी झलक आज तक भारत के कोने-कोने में दिखती है। 1950 में रामधारी सिंह मुज़फ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज के हिंदी के विभागाध्यक्ष चुने गए। वहीं, इसके 2 वर्ष पश्चात ही उन्हें देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की सरकार ने 1952 में राज्यसभा के लिए मनोनित किया। दिनकर 1964 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। अपना राज्यसभा का कार्यकाल पूरा करते ही उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त कर दिया गया। दिनकर ने कुलपति के तौर पर अपने पैर जमाए ही थे कि अगले ही वर्ष 1965 में उन्हें भारत सरकार ने हिंदी का सलाहकार नियुक्त कर पुन: दिल्ली बुला लिया गया।

इस वक्त तक दिनकर पद्य से गद्य की ओर भी रुख कर चुके थे और उन्होंने ‘मिट्टी की ओर’ (1946), ‘अर्धनारीश्वर’ (1952) व ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (1956) की रचना की। सन् 1959 में दिनकर को देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। वहीं, उन्हें इसी वर्ष उनकी रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए साहित्य अकादमी पुरुस्कार से भी नवाज़ा गया।

इसी बीच 1961 में वीर रस के इस वीर ने एक ऐसे महाकाव्य को जन्म दिया जो उसकी शैली व पारंपरिक कविताओं से बिल्कुल विपरीत थी। यह कविता मनुष्यों के भीतर छिपे कामुक्ता व शृंगार के भाव को जाग्रित कर उऩ्हें प्रेम की कल्पना और उसकी रंगीन दुनिया की सैर कराती है जिसका नाम है,‘उर्वशी’।  यह स्वर्ग लोक की एक अपसरा और पृथ्वी लोक के सम्राट की अद्भुत प्रेम गाथा है जो यह दर्शाती है कि कैसे समस्त पृथ्वी को जीतकर पूरी सृष्टि को अपने समक्ष झुकाने वाला वीर पुरुष भी प्रेम में पड़ने के बाद खुद घुटनों पर आ जाता है।

मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ

इस महाकाव्य के लिए दिनकर को सन् 1971 में ज्ञानपीठ पुरस्कार भेंट किया गया था। ‘उर्वशी’ के दो वर्ष पश्चात 1963 में दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’ लिखकर संसद में उन्हें मनोनित करने वाले प्रधानमंत्री के खिलाफ ही कटाक्ष किया। माना जाता है कि दिनकर ने 1962 में भारत की चीन से हार के बाद नेहरू को इसका ज़िम्मेदार ठहराते हुए यह पंक्तियाँ लिखी-

घातक है जो देवता-सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है

जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहां मारा है

जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है

यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर में ही हार गया है

उन्होंने संसद में बहस के दौरान अपने ही सरकार के प्रधानमंत्री के लिए अपनी ही लिखी पंक्तियाँ  दोहराते हुए कहा था-

रे रोक युधिष्ठर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर
पर फिरा हमें गांडीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर

उन्होंने हिंदी के अपमान को लेकर भी संसद में आवाज़ उठाई और प्रधानमंत्री पर आरोप लगाते हुए कहा था कि यह तो नहीं मालूम कि किसने हिंदी को गालियाँ देने की परिपाटी शुरू की मगर प्रधानमंत्री इसे बढ़ावा ज़रूर दे रहे हैं। साहित्य के जानकर बताते हैं कि एक बार दिनकर किसी कवि सम्मेलन में पहुँचे थे जहाँ पंडित जी भी उनके साथ मौजूद थे। इस दौरान मंच की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पंडित जी का पैर फिसलता है और दिनकर उन्हें संभाल लेते हैं। नेहरू उन्हें धन्यवाद देते हुए कहते हैं, ‘यदि आप ना होते तो मैं फिसल जाता’ जिस पर कथित तौर पर दिनकर जवाब देते हैं, ‘जब-जब राजनीति का पैर फिसलेगा साहित्य उसे सहारा देगी’।

हालांकि, दिनकर पंडित जी की जितनी आलोचना करते थे उससे कई अधिक उनका सम्मान करते थे। इसकी झलक हमें उनके द्वारा पंडित जी के व्यक्तित्व के ऊपर लिखी गई पुस्तक ‘लोकदेव नेहरू’ (1965) में साफ देखने को मिलती है।

रामधारी सिंह दिनकर अपने जीवन के अंतिम समय में फिर आर्थिक तंगी से जूझने लगे थे। हालात इतने बिगड़ चुके थे कि वह अपने लिए मृत्यु मांगने के लिए तिरुपति बालाजी चले गए। जानकारी के मुताबिक, उन्होंने मंदिर में रश्मीरथी का पाठ किया था और उन्हें सुनने भारी संख्या में लोग आए थे। अंतत: 24 अप्रैल 1974 को यह दिनकर हमेशा के लिए अस्त हो गया लेकिन ज़माने के लिए पीछे छोड़ गया एक ऐसी विरासत जो हर सत्ता में मगरूर शख्स को आइना दिखाने के काम आती है। बताया जाता है कि 1975 में दिनकर नहीं थे लेकिन उनकी कविता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री की कुर्सी हिला दी थी। जेपी आंदोलन के नायक जयप्रकाश नारायण ने सत्ता के नशे में चूर इंदिरा गाँधी को ललकारने के लिए दिनकर जी की कविता पढ़ी थी- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

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