– प्रखर श्रीवास्तव
साहित्यिक नगरी कहे जाने वाले उन्नाव में मौरावां स्थित हिंदी साहित्य पुस्तकालय बीते कई दशकों से साहित्य साधना का केंद्र बना हुआ है| यहाँ अब भी देश के कई कोनों से शोधार्थी शोध एवं स्वाध्याय हेतु पहुँचते हैं| विशेष तौर पर हिंदी साहित्य, कला संस्कृति, पौराणिक एवं धार्मिक साहित्य को संजोए इस पुस्तकालय में लगभग 75 हज़ार से अधिक किताबें मौजूद हैं|
इनमें प्रताप जैसे पत्र हैं तो वहीं प्रभा, कल्याण जैसी पुरानी पत्रिकाएं भी मौजूद हैं तो वहीं साहित्यकारों द्वारा लिखित आत्मकथाएं एवं संपादित श्रृंखलाओं का विस्तार है| यहाँ बच्चों और महिलाओं के लिए बैठने v पढ़ने के लिए अलग अनुभाग है, इस पुस्तकालय में रखी हस्तलिखित महाभारत आकर्षण का प्रमुख केंद्र है मगर आज ये विरासत अपने अंतिम दिन गिनने को मजबूर है|
ऐसे हुई थी स्थापना
108 साल पूर्व वर्ष 1917 में स्थापित इस पुस्तकालय की स्थापना अधिवक्ता रहे जयनारायण कपूर जी ने अपने दो साथी मेंड़ीलाल व बाल कृष्ण के संयुक्त सहयोग से 3 सितंबर को की थी| फिर तीनों ने अपने नामों के शुरुवाती अंग्रेजी अक्षरों को मिला कर इस पुस्तकालय का नाम बी•एम•जे• लाइब्रेरी रखा, जिसके अगले साल 1 जुलाई 1918 को श्री बलखंडी दीन सेठ ने नाम परिवर्तित कर इसे हिंदी साहित्य पुस्तकालय के रूप में स्थापित किया | काफी वर्ष बाद 7 जनवरी 2002 में पुस्तकालय को विस्तार देने के उद्देश्य से तत्कालीन विधायक श्री उदय राज के कार्यकाल में विधायकनिधि से भवन निर्माण कराया गया जिसका लोकार्पण उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के हाथों हुआ, राज्यपाल द्वारा भेंट की गई बाराह भगवान की दुर्लभ मूर्ति आज भी पुस्तकालय की रौनक बढ़ा रही है|
महान विभूतियों ने की शिरकत
वर्ष 1935 में इस पुस्तकालय में छायावादी युग के महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला बैलगाड़ी से आए और एक हफ्ता रुके इसके साथ ही हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के चरण भी इस पुस्तकालय में पड़े थे|
40 वर्षों से अधिक समय से पुस्तकालय में लाइब्रेरिएन के रूप में सेवा दे रहे राजेश चंद्र त्रिपाठी ‘लल्लन’ ने बताया कि सरकारी सहयोग के रूप में उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग के अंतर्गत पुस्तकालय प्रकोष्ठ से 10 हज़ार रुपए वार्षिक अनुदान प्राप्त होता है, जो कि बेहद कम है| पुस्तकों के रख रखाव के अतिरिक्त बिजली खर्च, पुस्तकालय की ईमारत का गिरता ढांचा व गल रहे कागज़ों के जीर्णोद्धार हेतु उन्होंने पुस्तक प्रेमियों व वरिष्ठ नागरिकों से आगे आने की अपील की है|
वादे जो रह गए अधूरे
13 सितंबर 1987 को दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने पुस्तकालय में लगभग 3 घंटे बिताए और कहा कि “ये एक बहुत ही कीमती ऐतिहासिक संग्रह है जिसे किसी भी कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए.”
उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के 94 – सफीपुर विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ विधायक बने गोपीनाथ दीक्षित ने तमाम मौखिक वादों के पश्चात लिखित बयान में भी ऐसा उल्लेख किया है कि “अत्यंत प्राचीन ग्रंथों को देखने का मौका मिला, इतनी महत्वपूर्ण संस्था की सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है राजकीय व्यवस्था के तहत तत्काल राज्य सरकार इसे नियंत्रण में ले कर त्वरित निर्णय दें”
उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष, हृदय नारायण दीक्षित की एक पहचान लेखक एवं साहित्यकार के रूप में भी है वे अक्सर इस पुस्तकालय में प्रशासनिक अधिकारियों के साथ पुस्तकालय के दरवाजे भीतर से बंद करा कर दोपहर से देर शाम तक स्वाध्याय करते थे, वक्त के बहाव में तमाम वादे बह गए और विषय से संबंधित पत्राचार की फाइल मोटी होती रही मगर प्रदेश के विधानसभा के अध्यक्ष के हाथों भी पुस्तकालय का जीर्णोद्धार ना हो सका..
वर्ष 2005 में उन्नाव से सांसद रहे वर्तमान उप मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश बृजेश पाठक द्वारा विज़िटर पुस्तिका में लिखा आज भी दर्ज है कि भारी संख्या में पांडुलिपियाँ और व्यवस्थित पुस्तक देख आत्मविभोर हुआ, भ्रम दूर हुआ कि छोटे कस्बे बड़े कस्बे व शहर से फर्क नहीं पड़ता पुस्तकालय के लिए कुछ भी करने का मौका मिलेगा तो मैं खुद को धन्य समझूंगा.. इस समिति को सहकारी सहायता की जगह सरकारी सहायता मिलनी चाहिए|
कई साहित्यिक व शैक्षिक संस्थाओं के अतिरिक्त तमाम पत्रकार, लेखक, विधायक, प्रदेश के मंत्री, राज्यपाल व महाविद्यालयों के प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष आदि तथा उन्नाव जिले में समय – समय पर तैनात होने वाले जिलाधिकारी व जिले के कई रूचि रखने वाले प्रशासनिक अधिकारी जब तब पुस्तकालय में आए तो रखरखाव की प्रशंसा के साथ ही पुस्तकालय की हिफाजत हेतु सहायता एवं संरक्षण के आश्वासन तो दे गए मगर दोबारा पीछे मुड़कर इस विरासत को सहेजने कोई नहीं लौटा|