Saturday, July 27, 2024

पुस्तक समीक्षा : फ़ैज़ – “चले चलो कि वह मंज़िल अभी नहीं आई”

13 फ़रवरी 1911 को स्यालकोट पंजाब में जन्मे फ़ैज़ साहब से वरिष्ठ अधिवक्ता व ऑल इंडिया लॉयर्स यूनियन के पदाधिकारी रहे सईद नकवी जी कि कोई निजी मुलाकात ना होने के बावजूद महज़ एक मुशायरे में सामने से सुनने और तमाम रात किताबों-कैसेटो के माध्यम से गुनने के बाद परिवर्तन प्रकाशन से किताब के रूप में निकली वैचारिक श्रंखला को पाठकों द्वारा काफी सराहा गयायह फैज़ साहब की रचनाओं का संकलन ही नहीं बल्कि उनकी रचनाओं के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले वैचारिक उथल-पुथल की आज़ाद अभिव्यक्ति है|

अपने लेख की शुरुआत में नकवी साहब ने बड़ी ही खूबसूरती से शोषितों और वंचितों के वकील मुंशी प्रेमचंद और तरक्की पसंद लेखक फैज अहमद फैज का बारीक तुलनात्मक जिक्र किया है, जिसमें यह बताया गया है कि फैज ने अपनी शायरी में मुंशी प्रेमचंद्र की कही बात ” हमें ऐसा अदब दरकार है जो लोगों को जगाए न कि सुलाये ” इस बात का हमेशा अमल किया है |

पेज नंबर 5 पर मोहब्बत में मशगूल इश्क का जो सफरनामा शायरी के रूप में दर्ज है, वो भ्रमित प्रेमियों के लिए गाइड की तरह है, जिसमें शायर अपनी महबूबा को अपनी मजबूरी पर यकीन दिला रहा है , उम्र के जिस पड़ाव पर और जिस तीव्र भाव से यह शायरी फैज़ की कलम से उपजी आगे चलकर वह वास्तव में उनके जीवन का अहम मोड़ साबित हुआ |वही पेज 7 पर मौजूद गज़ल इस बात की दास्तां सुनाती है कि कैसे क्रांति का रास्ता इश्क की मंजिल से होकर गुज़रता है |

76 पन्ने की इस किताब में नकवी साहब ने फ़ैज़ की तमाम जिंदा शायरी को शुमार करने के साथ ही पाकिस्तान में रावलपिंडी साजिश केस में फैज़ साहब की गिरफ्तारी, उनकी गिरफ्तारी पर जो अन्य बड़े लेखकों व संपादकों ने लिखा वो , उनका जेल जीवन और उनके जेल जीवन के दौरान के मूड की शायरी की बारीक विवेचना की है, जिन शायरी में कहीं भी निराशा या विफलता का भाव नहीं दिखता…, जिससे अवसाद व डिप्रेशन में जा रही गूगल से दुनिया घूम लेने वाली युवा पीढ़ी ये महसूस कर सकती है कि एक व्यक्ति जेल की चार दीवारों में अपनी अभीव्यक्तियों को कैसे पंख देता है |

इस किताब से हमें फैज़ की उन रचनाओं के बारे में भी जानने को मिलता है, जो कि उन्होंने फिलिस्तीन, अमेरिका और बांग्लादेश जैसे देशों में हो रहे अत्याचारों, वहाँ की समस्याओं और वहाँ के समर्पित शहीद क्रांतिकारियों पर लिखी थी |

इस किताब में फैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरियां जितनी जरूरतमंद और चुनिंदा हैं, उतने ही महत्वपूर्ण सईद नकवी के लेख भी, किताब के तीसरे लेख में बड़ी ही भावुकता के साथ उल्लेखित है कि “करोड़ों लोगों की तरह 14 अगस्त 1947 को फैज़ भी बगैर पूछे पाकिस्तानी हो गए लेकिन उनकी शायरी ने विभाजन कभी स्वीकार नहीं किया” इस किताब में फैज़ साहब की हिंदुस्तान की राजनीति और आर्थिक आज़ादी के संकल्प के विषय में भी चर्चा की गई है |

” क्यों ना जहां का गम अपना ले ” फैज़ साहब ने अपनी इस रचना को न सिर्फ रचना तक सीमित रखा बल्कि जीवन भर उसका अमल भी किया, आज के इस दौर में शायद ही कोई ऐसा हो जो अपने समाज का गम अपनाने की हिम्मत और हौसला रखता हो |

किताब की क़ीमत 60₹ है, किताब की भूमिका, परिशिष्ट और प्रस्तावना में इजाफा किया जा सकता था, किताब के कवर पेज के आधे हिस्से पर छपी नज़्म “हम देखेंगे” कवर पेज की रचनात्मकता के पैमाने पर उसे बोझिल बना रही है, किताब के पन्नों की गुणवत्ता व बाइंडिंग बेहतरीन है |

फैज़ की शायरी अपने पाठकों को विशेष दृष्टिकोण से प्रभावित न करके, मौलिक विचार को बढ़ने की आजादी देती है जिस प्रक्रिया के मध्य इस किताब में मौजूद लेख कई बार बाधा बन सकते हैं तो वहीं नवाअंकुरो के लिए एक रोचक सेतु का काम भी कर सकते हैं , परंतु इस प्रकार का प्रयोग पाठक पक्ष के हितों के लिए बेहद रचनात्मक इसलिए है क्योंकि प्रस्तुतकर्ता ने लेखक की लेखनी के साथ अपने अनुभवों में तमाम तथ्यपरक महत्वपूर्ण जानकारियों का इजाफा भी किया है|

सहमति-असहमति के भावों के बावजूद भी इस किताब को पढ़ने की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर पाठक अपने वैचारिक भूख को शांत भी कर सकते हैं अथवा गमों को अपना कर नई भूख पैदा भी कर सकते हैं|

समीक्षाकर्ता – प्रखर श्रीवास्तव

 

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