महाशूद्र – महाब्राह्मण” एक 15 रोचक कहानियों का शक्ति सूत्र है|15 रोचक कहानियों का कथ्य उन छुआ छूत उंच नीच और जातीय श्रेष्ठता के इर्द गिर्द घूमता है|
ऐसी कहानियां जो कल्पनाओं की दुनिया में भावुकता का भूचाल ला दें| भारत में लंबे समय से एक सामाजिक वर्ग जातिय समीकरण और ऊंच-नीच के भेद भाव का शिकार होता आया है, जिसके उदाहरण दफ्तर से लेकर घर हर तरफ आसानी से देखे व महसूस किए जा सकते हैं|
लेखक ने उन्ही बिखरी हुई दबी पीड़ाओं व समवेदनाओं को कहानी के माध्यम से रेखांकित करने की कोशिश की है जिन्हे हम जिंदगी के आम दिनों में जागरूक होने पर जी सकते हैं , लेखक ने कोई ऐसी नई जानकारी साझा नही की है जो प्रकाशन की दुनिया में पहली बार प्रकाश में आ रही हो लेकिन लेखक द्वारा पीड़ाओं को जिस लहज़े में उकेरा गया है वो पाठकों के दिल में घर कर जाता है|
पुस्तक का प्रकाशन आर्थिक हितों व भौतिक समृद्धि को कम अहमियत देने वाले प्रकाशन, “अमन प्रकाशन” से हुआ है| प्रकाशन ने आकर्षक कवर पेज के साथ 144 पेज की इस किताब को अच्छी गुणवत्ता के कागज पर छापा है जो कि ₹195 की कीमत पर पाठकों तक पहुँच रही है|
किताब में कहानी “इज्जत” में नादिर और बड़े बाबू के बीच का संवाद दफ्तरों की जाति व्यवस्था को बड़ी ही जीवंतता से पेश करता है, कहानी “बरसात” में उमस का उल्लेख जिस लहजे से किया गया है वह अद्भुत है ‘आसमान में बिना पानी के बादल थे जो आग बुझाने के लिए नहीं बल्कि आग लगाने के लिए एक दूसरे के पीछे लुक्कछिप रहे थे‘ , “बरसात” कहानी पाठकों को अपने बहाव के साथ आंचलिक वातावरण में ले जाती है, गर्मी के दिनों ठंडी फर्श पर लेटने का सुख और हाथ के पंखे के डंडे से नंगी पीठ को खुजाने का संतोष जैसी आम जीवन में होने वाली तमाम बातों को निसंकोच पेश किया गया है|
कहानी “मां गुड़ और साहूकार” में जिस तरह साहूकार एक पिता की मौत के बाद उधार के नाम पर बच्चे की नई साइकिल उसके माँ के सामने से छीन लेता है, वो मन द्रवित कर देने वाली घटना है तो वहीं कहानी “महाशूद्र महाभ्रमण” में मरघट का कार्य संभालने वाले लोगों की आपबीती से परिचय कराने के साथ ही ब्राह्मण समाज में अपने आचार्यों के प्रति मौजूद ऊंच-नीच को भी बखूबी दर्शाया गया है, जिसमें अंतिम क्रिया कर्म करने वाले ब्राह्मण आचार्य जी कहते हैं “हम बस नाम के ब्राह्मण हैं, हर कोई हमें अपने घर के दरवाजे से बाहर ही रखता है बहुत से लोग तो हमारी सूरत देखना भी अपशगुन मानते हैं, हमें कहा जाता है महा–ब्राह्मण पर इसका अर्थ जानते हो महाशूद्र…”
पुस्तक का मूल भाव दलित पक्ष के अधिकारों की बात करता है, हिन्दी दलित पत्रकारिता की शुरुवात भीमराव अंबेडकर ने “जनता” पत्रिका से की थी जिसे 1956 ई0 के बाद से ‘प्रबुध भारत’ नाम से प्रकाशित किया जाने लगा वहीं दूसरी ओर मराठी भाषा जगत में दलितों की आवाज़ ज्योतिबा फूले “दीनबंधु” पत्र के माध्यम से उठाया करती थीं, डॉ• अंबेडकर की जयंती पर यूँ तो सैकड़ों कार्यक्रम देश दुनिया में होते हैं, जिसमें अधिकांश कार्यक्रमों का रिश्ता विचार से नहीं राजनीति से होता है| सैकड़ों चौराहों पर उनकी नीली मूर्ति के साथ होने वाले तमाम आयोजनों में उनकी तमाम फोटो, कैलेंडर, पेन, डायरी यहाँ तक की टीशर्ट्स आदि का उद्योग भी सजा होता है जबकि स्वयं डॉ आंबेडकर व्यक्ति पूजा और मूर्ति पूजा का विरोध करते थे| वो हमेशा वैचारिक पक्ष के सम्मान और समर्थन की बात करते थे| वर्तमान दलित पत्रकारिता में भी आशोक दास का “दलित दस्तक”, व “द शूद्र” तथा “द न्यूज़ बीक” जैसे मीडिया संस्थान अग्रणी भूमिका अदा करते हैं|
महाशूद्र – महाब्राह्मण किताब को पढ़ने के दौरान कई मोड़ो पर मन खिन्न होगा, दिमाग दुखी होगा, विचार विचलित होंगे पर अंततः यह ही हमारे समाज की सच्चाई है|
इस पुस्तक में मौजूद कई कहानियों का अंत जल्दी नहीं होता क्योंकि लेखक मोहनदास नैमिशराय जी द्वारा एक-एक दृश्य अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है, जैसा कि लघु फिल्मों की स्क्रिप्ट में होता है|
नैमिशराय जी जो कि डॉ अंबेडकर प्रतिष्ठान भारत सरकार,नई दिल्ली में मुख्य संपादक की भूमिका में रहे, पत्रकारिता शिक्षण के अनुभव के साथ ही रेडियो, नाटक लेखन व शोध का अनुभव रखने वाले मोहनदास नैमिशराय जी की तमाम विषयों पर तमाम पुस्तकें देश-दुनिया में विख्यात हैं|
इस पुस्तक में मोहनदास नैमिशराय जी की कहानियों की अभिव्यक्ति में किरदार जितने जीवंत हैं, उतना ही धैर्य पाठकों को भी रखना पड़ता है, शब्दों से बनने वाली दिमागी छवि कुछ ऐसी उभर कर आती है के पाठक स्वयं को उससे अलग नहीं कर पाते, इसका कारण पात्रों के बीच हो रहे संवाद में किए गए भाषाई प्रयोग का भी है| भाषा अत्यंत सरल और सामाजिक होती है जिसके कारण कहानी दूर तक पहुंचती है|
दक्षिण भारत की सत्य घटना पर आधारित पहली कहानी “साइकिल वाली लड़की” दलित लड़की की आंखों में साइकिल की आकांक्षा से शुरू होती है, पिता के समक्ष बेटी की आंखों में उभरते आक्रोश से समाप्त होती है|
डॉ अंबेडकर ने कहा भी था कि “गुलामों को जब भी अपनी गुलामी का एहसास हो जाएगा तब वह विद्रोह कर उठेंगे” शायद इसलिए ही कहानियों के जागरूक पात्रों में संघर्ष करने की मानसिकता पहले पटल पर देखी जा सकता है|
तमाम कहानियों से गुजरने के बाद जीवन के तमाम पक्षों के मिले-जुले रंगों की अनुभूति होना स्वाभाविक है|
समीक्षाकर्ता – प्रखर श्रीवास्तव