साभारः विनीत कुमार की फेसबुक वाल से
कल शाम से सौरभ शुक्ला का यह वाक्य मेरी कानों में गूंज रहा है. कल एनडीटीवी छोड़ने के बाद उनका पहला दिन था और ठीक मेरे बगल में खड़े होकर वो अपने आत्मीय से बात करते नज़र आए. मुझे लगा कि ऐसा कहते हुए वो एक तरह से वही वाक्य दोहरा रहे हैं जब दिल्ली की खचाखच भरी ऑडिटोरियम में सैकड़ों लोगों ने पर्दे पर उन्हें एक वाक्य बोलते-देखते सुना और देर तक तालियाँ बजाते रहे. मेरे ख़्याल से उस शाम सबसे ज़्यादा और देर तक तालियाँ सौरभ के लिए ही बजी.
एनडीटीवी इंडिया के लगभग एक दशक तक पर्याय रहे रविश कुमार पर विनय शुक्ला की बनायी फ़िल्म “While We Watched” फ़िल्म का एक दृ़श्य. उस दृश्य में सौरभ पहली एकदम से व्यथित नज़र आते हैं लेकिन उसके बाद उतने ही दृढ़ और स्पष्ट जैसे उनके भीतर एक फिल्टर लगी हो कि क्या करना है, क्या नहीं. इसी दृश्य में एक वाक्य कहते हैं- आजतकवालों का फोन आया था सर, बुला रहे थे लेकिन तय कर लिया है कि आजतक नहीं जाना है. सौरभ के ऐसा बोलते ही ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहता है.
फ़िल्म के इस दृश्य का असर इतना गहरा है कि मीडिया के छात्र या नए मीडियाकर्मी देख लें तो मीमवाली पंक्ति दोहराने लग जाएं- ये आदमी क्या बोल रहा है, दिमाग़ खराब हुआ है उसका ? लेकिन
जो लोग बतौर एक दर्शक टेलिविजन देखते आए हैं, वो समझ सकेंगे कि सौरभ का दिमाग़ अपनी जगह पर एकदम सही काम कर रहा है. जिस आजतक की पहचान फील्ड रिपोर्टिंग से बनी, रॉयटर ने कभी दूरदर्शन के मुक़ाबले आजतक को कहीं ज़्यादा भरोसेमंद बताया. और जिसकी पृष्ठभूमि वीडियोटेप न्यूजट्रैक की रही है, उस संस्थान के भीतर रिपोर्टिंग और पत्रकारिता कैसे दम तोड़ रही है, यह दर्शक भी बेहतर महसूस कर पाते होंगे. यह अलग बात है कि प्रोफाईल बनने-बनाने के हिसाब से यह आज भी सबसे प्रभावशाली नेटवर्क है. यहां जाने का मतलब नियमित सैलरी, पर्क्स, प्रोमोशन और “घर-घर..” वाली पहुंच बहुत ही ताक़तवर ढंग से बन पाती है. सौरभ ने इस विकल्प के लिए न कहा और कल दोहराया- कुछ भी हो जाय, फील्ड नहीं छोड़ना है..सोचिए तो ये दोनों अलग बात नहीं है.
पिछले कुछ सालों से उभरते टीवी रिपोर्टर के तौर पर जिस चेहरे का ख़्याल आता, सौरभ उनमें सबसे पहले ध्यान में आते. कई बार वो एनडीटीवी के अंग्रेजी-हिन्दी दोनों चैनलों पर बारी-बारी से होते. हर टीवी रिपोर्टर की एक स्क्रीन यात्रा होती है, हम दर्शक जब उस यात्रा के साथ होते हैं तो उनका इस यात्रा से सवारी के बदल लेने के बाद असर तो होता ही है.
मैं जिस एनडीटीवी इंडिया का लगभग बारह साल पैनलिस्ट रहा, वक़्त के साथ वो छूट गया, लोग छूटते गए लेकिन अपने पेशे के कारण बतौर दर्शक तब भी जुड़ा रहा. अब तो वो चेहरे भी छूटते जा रहे हैं. किसी भी मीडियाकर्मी के लिए इस तरह के फ़ैसले लेना आसान नहीं होता, प्लेटफॉर्म बदलना इतना सहज नहीं होता और वो भी तब जब उसका समर शुरु ही हुआ हो. एकबारगी लगता है कि सौरभ यहां होते तो कुछ और कमाल करते लेकिन फिर लगता है कि यह वाक़ई अब कमाल करने का प्लेटफॉर्म रह गया है ?
मैं कल शाम से सौरभ के इस कहे वाक्य को मन ही मन दोहरा रहा हूँ- फील्ड नहीं छोड़ना है..यानी हमारा रिपोर्टर अपने भीतर की पत्रकारिता ज़िंदा रहेगी और हम दर्शक के हिस्से की मुराद पूरी होती रहेगी.