सुरेंद्र सिंह चौधरी-
क्या भविष्य में संतानोत्पत्ति के लिए स्त्री को पुरुष की और पुरुष को स्त्री की आवश्यकता ही नहीं रहेगी ?
कल शाम 6 बजे ‘डिस्कवरी साइंस’ पर The Wormhole With Morgan Freeman की प्रस्तुति देख कर तो ऐसा ही लगा। शरीर विज्ञानी इस दिशा में जो शोध लेकर आए हैं उसके मुताबिक अभी तक संतान के जन्म के लिए पुरुष के स्पर्म एवं स्त्री के डिम्ब का मिलन जरूरी है।
गर्भाशय में भ्रूण लगभग 9 महीने तक विकसित होने के बाद बाहर की दुनिया में प्रवेश करता है लेकिन अब प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि पुरुष या स्त्री की खाल के छोटे से हिस्से से वैज्ञानिक × और xy क्रोमोजोम्स को अलग करके एक कृत्रिम गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर सकते हैं और एक स्वस्थ बच्चे को दुनिया में ला सकते हैं।
यदि आनेवाली पीढ़ियों ने संतानोत्पत्ति का यही मार्ग चुना तो प्रसव के दौरान स्त्रियों को तमाम परेशानियों से मुक्ति तो मिलेगी ही उनके प्राणों का संकट भी हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा। लेकिन क्रृत्रिम गर्भाशय से जन्मे बच्चे क्या भावनात्मक रूप से अपने माता पिता से उसी तरह जुड़ पायेंगे जैसे असली गर्भाशय से जन्मे बच्चे जुड़ते हैं। इसके अलावा भाई बहन, चाचा चाची, दादा दादी जैसे रिश्तों का क्या भविष्य होगा? और आगे बढ़ें तो धर्मों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का कैसा स्वरूप होगा ?
गर्भाशय में भ्रूण लगभग 9 महीने तक विकसित होने के बाद बाहर की दुनिया में प्रवेश करता है लेकिन अब प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि पुरुष या स्त्री की खाल के छोटे से हिस्से से वैज्ञानिक × और xy क्रोमोजोम्स को अलग करके एक कृत्रिम गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर सकते हैं और एक स्वस्थ बच्चे को दुनिया में ला सकते हैं।
यदि आनेवाली पीढ़ियों ने संतानोत्पत्ति का यही मार्ग चुना तो प्रसव के दौरान स्त्रियों को तमाम परेशानियों से मुक्ति तो मिलेगी ही उनके प्राणों का संकट भी हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा। लेकिन क्रृत्रिम गर्भाशय से जन्मे बच्चे क्या भावनात्मक रूप से अपने माता पिता से उसी तरह जुड़ पायेंगे जैसे असली गर्भाशय से जन्मे बच्चे जुड़ते हैं। इसके अलावा भाई बहन, चाचा चाची, दादा दादी जैसे रिश्तों का क्या भविष्य होगा? और आगे बढ़ें तो धर्मों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का कैसा स्वरूप होगा ?
प्रकृति में नर, मादा एवं उभयलिंगी प्राणी/वनस्पति पाये जाते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य अपने जींस को आगे बढ़ाना है लेकिन सभ्यता के विकास क्रम में मनुष्यों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है कि वह कबीलों को तोड़कर परिवारों में बंटे फिर परिवारों को तोड़कर पति-पत्नी के युग्म में बदले और अब पति – पत्नी के रूप में भी एक साथ नहीं रहना चाहते। लगातार बढ़ती तलाक की घटनाएं और अविवाहित रहने की बढ़ती प्रवृत्ति इस बात की पुष्टि करते हैं कि मानवजाति धीरे धीरे ही सही लेकिन विलोपन की दिशा में आगे बढ़ रही है।
एक और कारण इंसानों के विलोपन की गति को तेज करेगा वह है प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया। अब मनुष्यों को धन संग्रह,घर मकान, फ्रिज, ए सी, मोटरकारों की जरूरतों ने इतना व्यस्त और तनावपूर्ण बना दिया है कि उनकी “सेक्सुअल डिजायर” क्षीण होती जा रही है और वे समयपूर्व ही नपुंसकता व अवसाद का शिकार होते जा रहे हैं। स्त्रियां भी बस पुरुषों से थोड़ा ही पीछे हैं।
प्रकृति उन प्रजातियों को मिटाने लगती है जो स्वयं ही प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चलने लगते हैं। ‘सेक्सुअल डिजायर ” की कमी, इंसानों के विलोपन की कुंजी है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कुछ लाख वर्षों में मानवजाति का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो सकता है।