Monday, December 30, 2024

स्त्री और कॉरपोरेट नौकरी

  हिमांशु श्रीवास्तव 
पत्रकार , नई दिल्ली

‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’, मुझे विश्व के इतिहास की गहरी जानकारी तो नहीं है, लेकिन भारतीय इतिहास की बात करूं तो स्त्री के भीतर की ज्वाला को अगर किसी ने पहली बार अनुभव किया होगा तो संभवत: ये क्षण रहा होगा| जब फिरंगी आक्रांताओं से घिरी महारानी लक्ष्मीबाई पीठ पर चार वर्ष के बालक को बांधे रणभूमि में युद्ध कर रही थीं|
19वीं और 20वीं सदी आते-आते लोगों ने स्त्रियों के अस्तित्व को पहचानना शुरू कर दिया था और 21वीं सदी आते-आते स्त्रियों को उनका मान-सम्मान जिसकी वो सदियों से हकदार थीं, मिलने लगा | लेकिन आज के समय में स्त्री और पुरुष में फर्क बिल्कुल ना के बराबर है| हाँ , अगर हम देश के उन ग्रामीण इलाकों को छोड़ दें जहाँ अभी भी स्त्री मात्र घर की शोभा बढ़ाने और बच्चों को पैदा करने और पालने की मशीन हैं |
खैर, हम उन स्त्रियों के बारे में बात कर रहे हैं जो शहरों में रहती हैं और पुरुषों के साथ काम करती हैं, पुरुषों के बराबर और शायद कई मामलों में उनसे बेहतर | इस जगह को हम कॉरपोरेट कहते हैं, जहाँ 8 घंटे के काम के नाम पर 24 घंटे का टेंशन दिया जाता है| इन चार दीवारों के बीच एक अलग ही दुनिया बसती है जहाँ काम से ज्यादा चापलूसी और चुगलीपर आपकी तरक्की और इंक्रीमेंट तय होती है | इसी दुनिया का हिस्सा देश की आधी आबादी ‘महिलाएँ’ भी होती हैं|

कानून में जितने भी नारी सशक्तिकरण को लेकर बदलाव हुए हैं वो सभी यहाँ निभाए जाते हैं, कम से कम कागजों पर तो निभाए ही जाते हैं| यहाँ पर विभिन्न विचारों वाली स्त्रियों से आपका सामना होता है, कुछ इंडिपेंडेंट और फेमिनिस्ट, कुछ कमजोर और अंडर कॉन्फिडेंट, कुछ आकर्षित कुछ सामान्य दिखने वाली तो कुछ जो किसी भी दम पर पूरे विश्व को जीत लेना चाहती हैं और कुछ स्वाभिमानी | पुरुष भी मोटा-माटी इसी प्रकार के होते हैं पर हमारा विषय है स्त्री तो वी विल स्टिक टू इट… पूरे विश्व में ऐश्वर्य और धन प्राप्ती की कामना किसको नहीं होती ? कौन है जो आम जीवन से खुश है ? और कौन है जो अनंत यश और वैभव नहीं चाहता  ? पर कामनाएं और महत्वकांक्षाएँ कई बार आपको राह से भटका भी देती हैं और कई लोग गलत राह स्वेच्छा से चुनते हैं जिससे उनको जीवन में आगे बढ़ने का मौका मिल जाता है| अगर मैं यह लिखूं कि कॉरपोरेट जगत में महिलाओं का शोषण होता है तो कहीं से भी गलत नहीं होगा, महिलाओं को मात्र एक सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखा जाता है और यदि हम बात करें फिल्म या मीडिया इंडस्ट्री की तो ये इंडस्ट्री तो टिकी ही है ग्लैमर पर जहाँ  सिर्फ चेहरे और अंगप्रदर्शन का खेल होता है| आप टैलेंटेड हैं या नहीं ये मायने नहीं रखता पर यदि आप स्क्रीन पर आने का सपना देख रहे हैं तो आप आकर्षित हैं या नहीं ये मायने जरूर रखता है |

कई बार सीनियर मैनेजर आपको कैमरा पर लाने का प्रलोभन देकर आपका फायदा उठाते हैं और कई बार स्त्री खुद अपनी इच्छा से बदन का सौदा करती है| आपने ऐसे तमाम खबरें सुनी होंगी जहाँ नौकरी का लालच देकर या नौकरी छीनने का दबाव बनाकर महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया है| ये सिर्फ खबरें नहीं हैं, सच्चाई है कॉरपोरेट के दलदल की… ये जिंदगी है, जिस्मों में कैद कई आत्माओं की… जहाँ लोग हजारों सपने लेकर आते हैं, एक स्वाभिमान की जिंदगी जीने का सपना, एक टेंशन फ्री और लग्जरी लाइफ जीने का सपना, लेकिन जिंदगी जीना तो दूर ऐसी जगह पर उनका जीवन काटना तक दूभर हो जाता है|

महिलाएं तो कॉरपोरेट में बस भेड़ बनकर रह गईं हैं, जिनके जिस्म को नोचने के लिए हर तरफ भेड़ियें घूम रहे होते हैं… बस मौका मिले और लपक लें | यहाँ लोगों को इंसान नहीं रोबोट समझा जाता है जिनसे जितना हो सके काम निकलवा लो, भले ही वो उनकी मानसिक स्थिति और जीवन को बर्बाद कर देने की शर्त पर ही क्यों ना हो | ऐसी जगह, जहाँ पर फेम की चाहत में लड़कियों को बिखरते देखा गया है, वहीं पर आत्मसम्मान की चादर ओढ़े भी कई झांसी की रानियाँ अपने अस्तित्व की रक्षा करते देखी जा सकती हैं|

जिन्होंने नौकरी गंवाने की शर्त पर भी स्वाभिमान से समझौता नहीं किया, जिन्होंने आवाज उठाई और महिषासुर के खिलाफ रणचंडी बनकर खड़ी हुईं , पर क्या उन्हें न्याय मिला ? क्या उनकी कुर्बानी को सराहना मिली ? क्या आप इनमें से किसी भी ऐसी स्त्री को जानते हैं ? ‘नहीं ना’, क्या उनका बलिदान व्यर्थ चला जाएगा ? क्या हम यूँ ही चुप बैठे रहेंगे ? क्या भविष्य में अन्याय नहीं होगा ? ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं…  पर क्या मुझमें इतनी हिम्मत है कि मैं कुछ कर सकूं ? क्या किसी और में ये हौसला है कि वो लड़ सके ? ऐसे कई सवाल लिए मन के भीतर आकाश गंगा को भी चीर देने वाली चीख अक्सर ‘रोबोट’ के लोहे के जिस्म को तोड़ नहीं पाती, ये चीख कंठ से बाहर का रास्ता कभी नहीं देख पाती और कड़वे विष की भांति सदैव कंठ में ही रह जाती है|

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