Thursday, September 19, 2024

चिंतन प्रकाशन से प्रकाशित हुई नैमिशराय जी की ये नई किताब

मोहनदास नैमिशराय जी ने आधुनिक हिंदी दलित साहित्य की दुनिया में अपनी अलग विधा के साहित्य का सृजन किया है। उनकी रचनाओं में दलित वर्ग का संघर्ष, वंचित वर्ग की पीड़ा का दर्द और अत्याचार का संजीव चित्रण देखने को मिलता है। उन्होंने मुख्यत: कहानी, रिपोर्ट, साक्षात्कार, आत्मकथा और आलोचना के माध्यम से कई अनुपम रचनाएँ भारतीय पाठकों को दी हैं, जिनमें से एक पुस्तक “संदेश प्रद कहानियाँ” प्रकाशित हुई है|

चिंतन प्रकाशन से प्रकाशित 167 पेज की ये पुस्तक सामाजिक संवेदनाओं को समेटे 21 कहानियों का संकलन है, जो कि सामाजिक चेतना के स्तर को संबल देने के साथ ही संरक्षण भी देती है|

इस पुस्तक में संजोई गई कहानियों को जीवन संघर्ष का कथाक्रम कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, लेखक ने जीवन के विभिन्न संबंधों का जिज्ञासा पूर्ण वर्णन इस किताब में कहानियों के माध्यम से किया है|

कहानी ‘ तुलसा ‘ बढ़ती उम्र की लकीरों से भरी शरीर वाली 60 पार कर चुकी दादी माँ और उनकी अनाथ पोती तुलसा की कहानी है | जो जीवन के अलग अलग पड़ावों को तुलसी के पौधे से तुलना कर अनाथ कन्या को आगे बढ़ने का हौसला देती है | कहानी में तुलसा नाम की लड़की को उसकी दादी बचपन से ही तुलसी देवी की कहानी सुनाया करती थीं| कहानी में दादी की कहानी सुनाने की उत्सुकता और पोती की जिज्ञासा दोनों को पारस्परिक रूप से स्पर्धा करते दर्शाया गया है |

दादी तुलसी को कभी खांसी ठीक करने वाला डॉ• बताती तो कभी बाकायदा पूजा करती तो तुलसी को भगवान का दर्जा देते हुए कहानी सुनाती.., कहानी में अनाथ तुलसा अवसाद के क्षणों में अपने जीवन को तुलसी के पौधे से तुलना करते हुए यह सोचती कि तुलसी जिस तरह से आंगन में उग कर जवान हुई उस तरीके से वो वह भी समझ में बड़ी होकर हरियाली फैलाएगी | तुलसा यह भी सोचती कि कभी तुलसी भी नन्हा सा पौधा था और वह भी नन्ही सी गुड़िया थी और दोनों बढ़ते पलते गए | कहानी का अंत मार्मिक अंदाज़ में होता है जहाँ तुलसी के जीवन चित्रण पर बने एक नाटक का मंचन होता जिसके किरदार के रूप में तुलसी और उसका भाई सुमीत शामिल होते हैं | मानों लेखक ने एक अंजान पौधे तुलसी के जीवन का और एक अनाथ बच्ची के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन कर कहानी में ढाल दिया हो |

कहानी ‘ वजन ‘ भारत के प्रथम पुरुष यानी कि राष्ट्रपति के देश के ग्रामीण एवं आंचलिक इलाकों में न जाने पर संकेत करने के साथ ही कड़ा सवाल भी उठाती है, कहानी की नियत भारत के प्रथम पुरुष को भारत के अंतिम पुरुष के साथ खड़ा करती है | समाज के अंतिम पुरुष के प्रतीक के रूप में होता है गांव में रहने वाला भानू जो राष्ट्रपति एवं अन्य माननीयों को पत्र भेजा करता है और डाकिया राज नारायण दफ्तर वालों के लिए नारायण और गाँव वालों का डाक बाबू जिसकी साईकिल की घंटी की आवाज सुनते बच्चे दौड़ पढ़ते तो वहीं कुछ बुजुर्ग व्यंग करके कहते कि कब तक बोझ लिए घूमते रहोगे | इस कहानी में भारत के प्रथम पुरुष और अंतिम पुरुष के बीच में चल रहे संवाद का माध्यम होता है ‘डाक बाबू’ जो कई बार भानु के लिए मुंबई और बरेली से आने वाली तमाम चिट्टियां व अन्य जगह से आने वाली तमाम किताबें और पत्रिकाओं के बोझ से परेशान भी दिखाते हैं तो वहीं वह भानु के लेखों को दफ्तर में सुनाते वक्त अपने तर्कों से उसके विरोध में आए कठनों काट करते, लेख के मुद्दों का समर्थन करते और राष्ट्रपति भवन के अशोक की मोहर लगे पीले लिफाफे के इंतजार में रहते कि आखिर महामहिम गाँव कब आएँगे ? और कहानी का अंत एक पीला लिफाफा खुलने और उनकी इस इच्छा कि पूर्ति के साथ होता है |

मोहनदास नैमिशराय जी दुर्लभ और सुलभ घटना चक्र में क्रियाकलापों के माध्यम से घटना प्रधान और चरित्र प्रधान कथानक का निर्माण करते हुए सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक,पौराणिक एवं ऐतिहासिक विषय वस्तु तथा भाव दृष्टि को प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं |

कहानी ‘ पुरुस्कार ‘ में लेखक ने सामाजिक ताने-बाने के दो भागों की पेशकश की है, जिसका केंद्र आदिवासी महिला सुमति बाई है | जो राष्ट्रपति भवन में सम्मानित होने के लिए वहाँ की शान शौकत को पहली बार देखती हैं, उनमें उस क्षण को जीने कि ख़ुशी होती है तो वहीं संकोच भी… संकोच ऊंच नीच कि मानसिकता और अतीत के पन्नों कि विवशता का भी…कहानी के अनुसार ‘सुमति बाई’ को राष्ट्रपति कला के क्षेत्र में सम्मानित करते हैं, जिसके चलते सरकार द्वारा उनके रहने की व्यवस्था राजधानी के पास सितारा होटल में होती है मगर वह संकोच और डर भय के चलते उसे पाने में विचलित महसूस कर रही होती हैं | आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से आने वाली सुमति बाई के पति बीमार होते हैं तो वहीं वह भी बाँध योजना की सरकारी घोषणा के चलते विस्थापन के दर्द को झेलते हुए शहर में आ बसती है जहाँ पर उनके रोजगार का साधन मात्र मजदूरी होता है | सुमति बाई के सामने ऊंची इमारतें, ईटा, गारा, सीमेंट, बालू, लोहे से रिश्ता जोड़ने कि मज़बूरी होती है तभी एक दिन मजदूरी करते वक्त कला और संस्कृति निदेशक उसके भीतर छुपे चित्रकार को महसूस कर उसे एक मौका देकर उसके क्षेत्र की छूटी नदी, पहाड़, घाटियों की छवियां वापस पुनर्जीवित कर देते हैं और उसके सामने होती है रंगों की एक नई दुनिया जो उसे नई पहचान और नया जीवन देती है |

कहानी ‘ पूरा आदमी ‘ में लेखक ने मौलवी साहब, नसीमा और शर्मा जी उर्फ़ ‘हनुमान चचा’ के माध्यम से हिंदू मुस्लिम एकता व सामाजिक सद्भावना का भाव प्रमुखता से दर्शाया है | कहानी मोहल्ले की चर्चाओं और हिंदू मुसलमान की बहसबाज़ी से शुरू होती है, और इंसानियत के कैनवास से गुजरते हुए अपने अंजाम तक पहुंचती है, जिसको मोड़ देने में अहम भूमिका अदा करता है नाला सफाई करने वाला झम्मन, सरकार अंग्रेजों की हो या देश की हुकूमत की झम्मन का काम वैसे ही जारी रहता है |

एक रोज मस्जिद से अजान की आवाज नहीं आता जबकि मंदिर से घंटे बजने की आवाज़ बराबर आ रही होती हैं, पता करने पर मोहल्ले के शर्मा जी और बच्चों के हनुमान चचा अंदर से परेशान होते हैं और सफाई कर्मचारी से जिज्ञासा के साथ पूछते कि मौलवी साहब रहे नहीं और तुमने बताया भी नहीं… तभी सफाई कर्मचारी झम्मन जो जवाब देता है वो हनुमान चाचा को सांप्रदायिक सद्भाव और स्वयं की विचारधारा और क्रिया पर सोचने को विवश करता है और इसी के साथ वो निर्णय ले बिना घर पर बताए, मौलवी साहब के घर उनकी गमी में शामिल होने पहुँचते हैं |

वहाँ पहुँचकर वे पाते हैं कि दरवाजा छोटी बच्ची नसीमा ने खोला और खोलते ही वह का पड़ी “हनुमान चाचा आ गए” यह सुनते ही उनके घर से रहमान भी बाहर आ गए जब वे शर्मा जी घर में रहे तो उसे दौरान उन्होंने नोटिस किया कि सामने अलमारी के ऊपर राम और कृष्ण की मूर्तियां रखी हैं तो वहीं उसके पीछे मक्का मदीने का चित्र टंगा हुआ है | एक पारिवारिक सदस्य कुरान का पाठ कर रहा है तो वहीं दूसरा पारिवारिक सदस्य गीत के अध्याय पढ़ रहा है | यह देख शर्मा जी बेहद खुश हुए और शर्मिंदा भी…

मोहनदास जी कि कहानियों का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि आर्थिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से वैचारिक भेदभाव को कम करने के साथ ही सामाजिक संरचना के विकास हेतु पाठकों में भाव पैदा करना भी है, इसलिए लेखक ने अपनी कहानियों में दलित शोषित और शासित जनों की व्यवस्था का क्रांतिकारी और विचारोत्तेजक वर्णन किया है|

कहानी ‘ बाबूलाल चौकीदार ‘ भगवान बुद्ध और डॉ अंबेडकर को मानने वाले, मजदूर से चौकीदार बने 30 वर्षीय बाबूलाल की है | जिससे बुद्ध विहार के इलाके के लोग बड़ा ही प्रभावित रहते थे और घंटा घंटा भर बतिया कर कुछ सीखने और कुछ सिखाने का भी प्रयास करते थे | उसके अन्य मजदूर साथी जब उसे राम-राम करते तो वह मुस्कुरा कर नमो बुद्धाय कहता.. वह बुद्ध विहार के निर्माण कार्य में लगा था इसलिए क्षेत्रीय दलित नेताओं का भी स्नेह और आर्थिक सहायता उसे प्राप्त होती रहती थी |

कुछ माह बाद प्रदेश सरकार के गिर जाने से बुद्ध विहार बनने में अड़चन आने लगी सरकारी बजट मिलना बंद हो गया जो मिला उसमें भी बंदर बाट हो गई और बुद्ध विहार का काम रुक गया, ऐसे में एक भंते जी द्वारा जब क्षेत्रीय जनता से चंदे में ली गई राशि के माध्यम से बुद्ध जी की मूर्ति और अन्य महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा कर दिया गया तो लोग बिना बिजली वाले बुद्ध विहार में भी पूजा अर्चना के लिए आने लगे.., क्षेत्रीय जन सहयोग से बने विहार में क्षेत्रीय दलित नेताओं का दबदबा कम होने लगा जो कि कहानी अनुसार विवाद का कारण बना.. और इस प्रकार से लेखक ने धर्म और राजनीति के खेल को सांकेतिक रूप से बखूबी दर्शा दिया |

कहानी ‘ अपनी अपनी समझ ‘ में उस परिवार का जिक्र आता है जो कि अंजान शहर में किसी के इंतजार में रेलवे स्टेशन के बाहर धूप में घंटो इंतजार करता रहता है और अंतत: अंजान रास्तों पर चलते हुए, लाउडस्पीकर का शोर सुन उस तरफ जब बढ़ता है तो जय भीम के नारों की गूंज पाता है |

वहीं जय भीम के अभिवादन के चलते उसे कार्यक्रम पश्चात् न सिर्फ भोजन नसीब होता बल्कि उसकी मज़बूरी को देखते हुए उसे कुछ दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा काम और प्रवास भी मिल जाता है, उसकी पत्नी जो किसी के घर में बर्तन चौके और साफ सफाई का काम पाती है जब उसे बासी सब्जी – बची ब्रेड , दाग लगी साड़ी और टूटे हुए हुकों का ब्लाउज आदि दिया जाता है तो उसे कुछ अजीब लगता है और वह उसका प्रतिकार कर अपने आत्म सम्मान की रक्षा करती है और “जय भीम” के नारे को चिरतार्थ करती है |

जीवन संदर्भों को प्रखरता देने वाले कहानीकार मोहनदास जी कि कहानियां हिंदी साहित्य को अपने ढंग का नया शिल्प प्रदान करती हैं कहानी विषय और वातावरण की दृष्टि से घटना प्रधान होती हैं जो की सामाजिक सच्चाइयों यथार्थ की लकीर के साथ अपने पाठकों के समक्ष व्यक्त करती हैं |

लेखक को इतिहास की मर्यादा का विचार करना ही पड़ता है परंतु इतिहास का सच्चा स्वरूप वर्णन करना ही साहित्यिकता का आधार नहीं हो सकता क्योंकि घटनाओं में कल्पना का पुट देकर ही लेखक अपने विचारों को संभावनाओं का रूप देखकर जीवंत करता है जो कि पाठक हित में अधिक अनुकरणीय है |

कहानी के संबंध में मोहन राकेश का कथन है कि “प्रभावों को पहचान सकें तो हर छोटे से छोटे खंड की अपनी एक कहानी है जिस राह से दो पैर गुजर जाते हैं उसे राह की धूल में उन पैरों से एक कहानी लिखी जाती है हर जीवित इंसान के चेहरे पर एक कहानी लिखी रहती है जो उसके भाव की सलवटो में पढ़ी जा सकती है जो उसके चेहरे की झुरियां में झलकती है जो उसकी पलकों के उठने गिरने में अंकित होती है|”

इसलिए साहित्यिक दुनिया द्वारा ऐसा भी कहा जाता है की कहानी एक व्यक्ति की नहीं पूरे समाज की होती है कहानी का कैनवस भले छोटा हो पर उसका संकेत साधारण नहीं हो सकता |

एक गाँव की दलित लड़की और सवर्ण लड़कों के समूह को पात्र के रूप में प्रस्तुत की गई कहानी ‘ साईकिल वाली लड़की ‘ जातिगत भेदभाव को दर्शाती है कि किस प्रकार आर्थिक रूप से कमजोर एक दलित परिवार 5 किलोमीटर दूर पढ़ने जाने वाली अपनी बेटी के लिए साल भर के खर्चों के बजट में जोड़ घटाव कर एक नई साइकिल लाता है खुशियों का माहौल होता है, मगर बेटी का उत्साह आंसुओं में तब तब्दील हो जाता है जब समाज के बड़े वर्ग के घरों के लड़कों को उसकी साइकिल चलाना अच्छा नहीं लगता वह उसे छेड़ते हैं वह लड़की भावुकता और उदासी के साथ ही साथ क्रोध के भाव से उनका प्रतिकार करती है|

उदास बेटी को देख माँ उसे समझता है की ” बेटी जाति हमारी छाया के साथ-साथ चलती है जहाँ – जहाँ हम जाएंगे वहाँ – वहाँ जाती भी जाएगी फिर चाहे हम साइकिल पर हो स्कूटर में या फिर कार में क्यों ना हो…” लेखक ने उस माहौल में परिवेश की चुप्पी और मौन खड़ी साइकिल को बेहद मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है|

मोहनदास नैमिषराय की कहानियों की कथावस्तु पात्र और चरित्र चित्रण देश काल और वातावरण के अनुसार होते हैं, जो की महत्वपूर्ण तत्व भी हैं लेकिन उनकी कहानियों का शैली तत्व वह रीति है जो अन्य तत्वों को अपने विधान में प्रयोग करते हुए पाठकों तक बेहतरीन प्रकार से पहुँचती है|

इस पुस्तक में प्रकाशित कहानियों के पात्रों में अनीति, अन्याय, अत्याचार को बढ़ावा देने वाली वृत्ति भी कई घटनाक्रमों में दिखती है| इन कहानियों में जिन भावों का संकेत है, उनको मनोविश्लेषण के रूप से भार समझा जाता है मगर वही इन कहानियों का मेरुदंड है| मोहनदास जी की कहानियाँ यह प्रमाणित करती हैं कि साहित्य समाज का सिर्फ दर्पण ही नहीं होता बल्कि प्रेरक भी होता है|

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