Saturday, July 27, 2024

पुस्तक समीक्षा : लौट के बताता हूँ – डॉ मुकुल श्रीवास्तव

किसी भी यात्रा का मूल उद्देश्य मनोरंजन है, और मनोरंजन कि कई शैली हैं, पारिवारिक मनोरंजन, व्यापारिक मनोरंजन या वैचारिक मनोरंजन…

वैचारिक मनोरंजन की आकांक्षा रखने वाले लोग ही अक्सर सैद्धांतिक यात्रा वृतांत लिपिबद्ध करने में सफल हो पाते हैं, ऐसे ही वैचारिक पक्ष का झंडा उठाए एक सशक्त हस्ताक्षर हैं लखनऊ के डॉ. मुकुल श्रीवास्तव, 2 दशकों से अधिक पत्रकारिता शिक्षण में सक्रिय होने के साथ ही पाठक हित में अब तक 4 चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं, जिसमें से पाठकों द्वारा सर्वाधिक सराहे जाने वाली पुस्तक यश प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “लौट के बताता हूँ” है|

वैचारिक मनोरंजन की बात की पुष्टि लेखक द्वारा लिखे प्रस्तावना के पहले पैरा में उल्लेखित “मैं यात्रा अकेले करना पसंद करता हूँ पर किसी भी यात्रा में अकेले नहीं होता हूँ” इस कथन से प्रमाणिकता के साथ अभिव्यक्त होती है|

पुस्तक की यात्रा की शुरुआत डॉ मुकुल ने आध्यात्मिक मेंढक मंदिर से की है, जहां वह साल के आखिरी दिन थे|

लखीमपुर-खीरी का मेंढक मंदिर , शिव पूजा का तांत्रिक मंदिर है जिसे चाहमान वंश के राजा बख्श सिंह ने 1860 से 1870 के बीच बनवाया, विशेषता यह है कि वहां नंदी बैल खड़ा हुआ है और वह मंदिर मेंढक के शरीर पर बना हुआ है| मंदिर की लंबाई चौड़ाई ऊंचाई दीवाल की नक्काशियों का बेहद बारीक वर्णन किताब में किया गया है|

इंसानी भूख की इंतेहा और लालच के पैमाने को जीवंत रूप में लेखक ने टिहरी यात्रा के संस्मरण साझा किए हैं जहां नए शहर बनाने के लिए पहाड़ काटे गए, देश के सबसे बड़े बांध के नाम पर एक पूरा शहर डूबा दिया गया, जलस्तर कम होने पर कुछ कहने की चाह रखने वाले राजमहल के खंडहर – और अपनी आपबीती सुनाने सूखे पुराने पेड़ आज भी देखे जा सकते हैं|

धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की यात्रा करना अगर आप मात्र वैष्णो देवी के दर्शन करके आ जाने को समझते हैं तो आप गलत हैं, कश्मीर यात्रा कि विवेचना पाठकों के मानसिक पटल पर कश्मीर और कश्मीरियों के प्रति मौजूद तमाम वहमों को तोड़ती है और परिचय कराती है हादसों को आमंत्रित करने वाले खूनी नाले से तो कहीं जवाहर टनल से और नगरों में लगने वाले पुर और वहां के इलाकों  ( हजरत बल, गांदर बल,खन्ना बल ) में लगने वाले बल के फर्क का कारण भी पता चलता है और फोटो के माध्यम से नकली सूर्य मंदिर, 400 साल पुराना चिनार का पेड़ और कश्मीरी पंडितों के खाली मकान की झलक भी देखने को मिलती है|

अमेरिका यात्रा के पन्नों पर लेखक ने एक वाक्य में बड़ी गहरी बात कही कि “हिंदुस्तान अपने ही इतिहास से चिपका रहा और अमेरिका अपना भविष्य बनाता रहा” खुद व खुद के समाज के प्रति आत्म आलोचना करने की दृष्टि और स्वीकारने की शक्ति रखने वाला व्यक्ति ऐसी बात कह सकता है| पेज 141 पर ब्लॉगर सरताज समीर लाल की दिल छू लेने वाली पंक्तियों को पढ़ने के लिए आपको किताब उठानी पड़ेगी, लेकिन पाठक हित में लेखक की अमेरिका यात्रा से कुछ सलाह जरूर काम आएंगी कि

  • कम मसालों के व्यंजन बेस्वाद लग सकते हैं
  • टाइम जोन इफेक्ट का ध्यान रखें,जिससे दिल्ली से न्यूयॉर्क की यात्रा के बाद लेखक के जीवन से एक रात गायब हो गई
  • बिजली व्यवस्था अलग होने के कारण,कोई भी भारतीय उपकरण बिना कनवर्टर लगाए नहीं चल सकते…

डॉ मुकुल ने दुकान से लिए कनेक्टर का प्रयोग बिना रुपए दिए, अमेरिकी सरकार की नीतियों के सहयोग से कैसे किया यह जानने के लिए भी आपको किताब उठानी पड़ेगी|

सूर्य के जागने से पहले जागो शाम ढलने से पहले भोजन और रात में सिर्फ दूध पियो पश्चिमी सभ्यता को मत अपनाओ यही तमाम बातें सुनने और आगे बढ़ाने वाले लोगों को पेज 144 पर यह जानने को मिलता है कैसे सारा अमेरिका शाम 7:00 बजे भोजन कर चुका होता है |

इटली की वादियों में जाएंगे तो जानेंगे कि “अपनी मिट्टी -अपना कपड़ा-अपनी भाषा” जैसी बातों को जमीनी हकीकत का रूप कैसे दिया जाता है ? , आखिर क्यों फिल्म निर्देशक यूरोप में शूटिंग करने को बेताब रहते हैं ? और बिना किसी रिनोवेशन के कैसे आधुनिकता को बरकरार रखते हुए प्राचीनता को बचाया जा सकता है ? , इटली में क्यों पाकिस्तानी व्यक्ति ने ” ताजमहल ” नाम का रेस्टोरेंट खोला ?, अवैध तरह से आया एक गुजराती युवक कैसे इटली में व्यापार कर रहा है ?, बोलोना विश्वविद्यालय में छात्रों के लिए बार क्यों है ? और इटली की सड़कों पर खूबसूरत लड़कियां कचरा क्यों उठाती हैं ?

इन तमाम सवालों का जवाब डॉ मुकुल के इटली यात्रा से मिलते हैं, उनका कहना है कि “यात्री विकसित देशों की यात्रा का लुफ्त तभी उठा सकते हैं यदि स्थानीय मुद्रा को भारतीय रुपयों में बदलकर ना देखें|”

यात्रा वृतांत में लिए गए किसी क्षेत्र में यदि आप जा चुके होंगे, तो बिना उद्देश्य सिर्फ यात्रा को जीने के लिए यात्रा करने वाले डॉ• मुकुल के शब्दों के माध्यम से पुनः जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि आप कितना कुछ छोड़ आए और कितने पक्षों से वंचित रह गए…

देश के तमाम प्रदेशों व विदेशों के कुछ देशों के बारे में बारीक जानकारी संकलित कर लिपिबद्ध करने के साथ ही डॉ मुकुल ने अपने पैतृक निवास यानी अपने गांव अपने पिता अपने चाचा व बुआ की शादी जैसी तमाम निजी रिश्तों कि बातें बताई हैं जिसकी झलक हम सभी के परिवारों में होंगी पर उसे साझा करना वो भी किताब में बड़ा मुश्किल काम है | पेज 101 पर गांव की यात्रा कई मोड़ों पर असहज करेगी , तो कई जगह भावुक भी…

 इस निजी लेख से दो असहमति भी पनपी

1) डॉ मुकुल गंभीरता से कह रहे हैं कि मेरी “ये आखिरी गांव यात्रा थी अब दोबारा इस जीवन में गांव आना नहीं होगा” जबकि किताब के एक भाग में उन्होंने यात्रा की तुलना जीवन से करते हुए कहा कि “मेरे जीवन का विशेष लक्ष्य क्या है मुझे नहीं पता मै सफर को जीते चल रहा हूँ – जाने जीवन के रास्ते कहाँ ले जाएं” यह दोनों बातें विरोधाभासी हैं|

2) पेज नं 104 पर “मेरा भी यही तरीका है जो चीज तकलीफ दे उसे भूल जाओ” इस कथन पर मेरी निजी असहमति इसलिए है क्योंकि मानव मन के भूलने की कोशिश करने पर वह चीज अधिक याद आती है, अत्यधिक कोशिश पर यदि मन के किसी कोने में वो दब भी जाए तो संकेतवश याद आने पर बहुत कचोटती है इसलिए तकलीफों को भुलाने की जगह उलझनों को सुलझाना ज्यादा बेहतर तरकीब है जो पाठकों को सुझाई जा सकती थी |

लेखक ने शांकओं , उमंगो और स्वाभाविक डर की अभिव्यक्ति बड़ी ही सहजता से की है जो कि सफल रेखाचित्र बनाने में सहयोगी साबित हुई |

यश प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ₹ 200 की क़ीमत पर 210 पन्नो की इस किताब में औसत दर्जे के कागज इस्तेमाल किया गए हैं, किताब के आकर्षक कवर पेज को खूबसूरती अफताब अनवर जी ने दी है, कवर पेज पर दर्शाया गया ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकने का दृश्य किताब के कंटेंट के साथ पूर्ण न्याय कर रहा है |

यात्रा वृतांत जैसे विषय पर आधारित रोचक संस्मरण के सफर की किताब में एक भी कलर्ड फोटो का ना होना, किसी लज़ीज़ शाही व्यंजन में नमक ना होने जैसा है, जो कि पाठकों के असंतोष का कारण भी बन सकता है जबकि प्रत्येक लेख में मौजूद तस्वीरों की संख्या बताती है कि डॉ मुकुल ने सभी तस्वीरों को स्वयं बड़ी दिलचस्पी से खींचा है, अन्यथा आजकल के तमाम ब्लॉगर तो तस्वीर खींचने की मेहनत से बचकर गूगल का सहारा लिया करते हैं | डॉ मुकुल ने बड़ी ही इमानदारी के साथ पेज नंबर 12 पर प्रकाशित खड़े हुए नंदी की तस्वीर को गूगल से लेने के साथ ही रेखांकित कर बताया भी है, ये शब्दों का ईमान उन लेखकों के समक्ष नमूना है जो कॉपी पेस्ट और एडिट के भरोसे लिख रहे हैं |

यायावरी के इतिहास पर नजर डालें तो हिंदी यात्रा साहित्य के पितामह  कहे जाने वाले सशक्त हस्ताक्षर राहुल सांकृत्यायन माने जाते है| ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘लंका’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘जापान’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘इरान’, ‘रूस में पच्चीस मास’, ‘किन्नर देश में’, ‘चीन में क्या देखा’ आदि इन कृतियों के माध्यम से चर्चित दर्शनिक रहे राहुल सांकृत्यायन ने यात्रा विधा को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई | सांस्कृतिक – भूगोलिक एवं सामाजिक रूप से धनी देश भारत, जहाँ के कोने कोने में किस्से कहानियां और रोमांच व्याप्त है | ऐसे देश में बड़ी संख्या में समृद्ध वैचारिक विद्वान और कलाकारों और घूमक्कड़ी सेल्फीबाजो के होने के बावजूद भी यात्रा वृतांत के प्रति लेखकों और पाठकों दोनों की कमी महसूस की जा सकती है|

लाइक कमेंट और व्यू की दुनिया का ये हांसिल जरूर रहा कि इस लुभावन के चलते लोगों में यात्रा वृतांत के प्रति उभरती हुई रुचि पैदा हुई है|

डॉ मुकुल ने पुस्तक में तमाम राष्ट्रवादी लेखकों की तरह अपने देश को दूसरे देशों से महान व सर्व शक्तिमान ना दर्शा कर स्वाभाविक विचारों को लिपिबद्ध किया है , मानसिक शांति की तलाश के लिए यात्रा करना व 18 साल पहले बिछड़े स्कूली दोस्त अजय की तलाश में उदयपुर पहुंच जाना व प्रस्तावना के अंतिम शब्दों में का अंत जिस संकोच के भाव से किया वो डॉ मुकुल के जीवन के भावनात्मक पक्ष को भी दर्शाता है|

किताब में डॉ मुकुल ने अपने मित्र सौगत बिश्वास का जिक्र किया कि उनके सलाह सुझाव से पुस्तक की संरचना हुई, इसलिए उनका नाम उल्लेखित यह बिना यह समीक्षा अधूरी होती

कहा जाता है कि समाज का प्रतिबिंब वहाँ के नागरिकों से है, ठीक उसी तरह यात्रियों कि माँग के चलते पर्यटन स्थलों का बढ़ता बाजार वहाँ की मौलिक व प्राकृतिक प्रस्तुति को घटाता है, इस किताब से ये सीखा जा सकता है कि सफर करने और सफर में बहने उसे जीने में कितना अंतर है|

पुस्तक के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि यायावरी के सफर में विचार चौगुनी रफ्तार से  गति पकड़ते हैं व मंजिल तक बहुत कुछ दे जाते हैं|

जीवों के जीवन की यात्रा मां के गर्भ से चल रही है या पूर्व जन्म से… ये दर्शन की बात हो सकती है मगर तर्क कि नहीं, समय की छाया बन कर निरंतर चल रही यात्रा के बीच यह सोचना कि यात्रा क्या है, अपने आप में मुश्किल है|  कवि गोपाल दास नीरज का लिखा याद आता है कि

“जितना कम सामान रहेगा , उतना सफर आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी , होगी उतना तू है हैरान रहेगा”

यह किताब लेखन और शोध से जुड़े व्यक्तियों के साथ उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो हर बार घूमने जाने का प्लान तो बनाते हैं पर जा नहीं पाते…

  समीक्षाकर्ता – प्रखर श्रीवास्तव

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