कहा जाता है कि दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है, इसलिए पर्यटकों की पहली चाह क्षेत्रीय व्यंजनों को चखने की होती है मगर दुश्वारी ये कि बाजारीकरण के दौर में इनकी उपलब्धता प्लेट में कम और कहानियों में ज्यादा होती, प्रतिस्पर्धा के दौर में पहाड़ी इलाकों में भी पनीर और चाइनीज व्यंजनों का दबदबा बढ़ रहा था |
ऐसे में नौगांवा ब्लॉक, रवांई घाटी उत्तरकाशी निवासी जमुना नें पहाड़ी व्यंजनों को पुनः जीवित करने का सोचा , जमुना के पिता स्वर्गीय विजेंद्र सिंह चौहान व माता का नाम रंजन देवी है| वे अपने चार भाइयों कि एकलौती बहन हैं, 18 वर्ष की आयु में उनका विवाह लक्ष्मण सिंह रावत से हुआ जिनसे 2 संतानों की प्राप्ति हुई, घर खर्च बढ़ा बच्चों की शैक्षिक जिम्मेदारी भी थी जिसके चलते जमुना नें ट्युशन और स्कूल में पढ़ाना शुरू किया तो कभी वृद्धा आश्रम में भी नौकरी करी, मगर जमुना को तब तक अपने हाथ का हुनर याद नहीं था|
जमुना नें जब अचार आदि की दुकान खोली तो वहाँ रवांई पकवान की भी पेशकश की, जिसका जायका वहाँ के लोगों के साथ ही आने वाले पर्यटकों को भी बेहद पसंद आया, जमुना की तरीफ हुई उसे हौसला मिला जिसके चलते उसने अपने व्यंजनों की प्रदर्शनी लगानी शुरू करी और नाम दिया ‘रवांई रसोई’ उनकी स्टाल ऋषिकेश, देहरादून के साथ ही साथ जनता की माँग पर चंडीगढ़, दिल्ली और मुंबई में भी लग चुकी है | इन प्रयासों से आर्थिक समृद्धि के साथ ही साथ जमुना का मनोबल भी खूब बढ़ा |
जमुना की ‘रवांई रसोई’ में अस्के, सीडे, डिंडके, बड़ील, झंगोरे की खीर, कोदे की रोटी, दाल के पकोड़े, तिल कुचाईं की चटनी आदि व्यंजन शामिल हैं, जिन्हें वे प्रदर्शनियों व मेलों में परोसती हैं |
वैसे तो जमुना महज कक्षा आठ पास हैं और उनके पति अशासकीय विद्यालय में सहायक अध्यापक हैं मगर
जमुना को नई पहचान दिलाने वाले पकवानों को बनाने की विधि, उन्होंने अपनी माँ से सीखी थी, अपने पारम्परिक व्यंजनों के स्वाद और पहचान भूल चुके लोगों के लिए जमुना एक प्रेरणादाई उदाहरण हैं |